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खांसी क्या है? और यह कितने प्रकार की होती है ? आयुर्वेद में खांसी को कितने प्रकार में बताया गया है?

पर्यायवाची:- काश, खंग, खांसी तथा अंग्रेजी में से कफ कहते हैं।

परिचय:- श्वसन तंत्र के रोगों में यह सर्वाधिक पाया जाने वाला लक्षण है खांसी- श्वसन संस्थान में इरिटेशन होने पर अथवा उसमें कोई रोग होने से होती है। स्मरण रहे कि यह स्वयं में कोई रोग नहीं है बल्कि होने वाले रोग का लक्षण है फुफ्फुस (लंग्स) के रोगों का यह सब प्रमुख लक्षण है। 

इसके प्रमुख कारण- 
१:- गले मैं वायरल इंफेक्शन
२:- ऋतु में परिवर्तन / सर्दी
३:- क्षय रोग (टी.बी.)
४:- दमा (अस्थमा)
५:- निमोनिया
६:- श्वसन संस्थान में किसी बाहरी वस्तु की उपस्थिति (जैसे धूल मिट्टी मसाला या किसी प्रकार का बैक्टीरिया, वायरस का प्रवेश कर जाना) आदि।

प्रकार व लक्षण- सामान्यतः यह दो प्रकार में पाई जाती हैं
१:- सूखी खांसी
२:- बलगम वाली खांसी

*सूखी खांसी:- इसमें कफ व बलगम नहीं निकलता है, तथा बार-बार थोड़े समय के लिए खांसी आती रहती है। छाती में जलन तथा सिर में रोगी के दर्द रहता है।

*बलगम वाली खांसी:- इसमें रोगी को खांसी आने के साथ में बलगम भी निकलता रहता है, रोगी के छाती में दर्द नहीं होता है, किंतु सर भारी रहता है बलगम निकलने से रोगी को आराम मिलता है।

आयुर्वेदिक मतानुसार- मस्तिष्क के लिए जिस तरह छींक है। उसी प्रकार फेफड़ों के लिए खांसी है। दिमाग छींक से अपनी तकलीफ दूर करता है। और फेफड़े खांसी से अपने कष्ट को दूर करते हैं और उससे संबंध रखने वाले श्वांसन यंत्रों मैं जब कोई खराबी होती है, प्रायः खांसी तभी होती है।
            हारीत संहिता मैं लिखा है कि- जब कंठ में रहने वाली उदानवायु ऊपर की ओर विपरीत हो जाती है, और कफ के साथ प्राणवायु का मेंल हो जाता है तब हृदय में जमा हुआ कफ कंठ में आ जाता है इसी से खांसी आती है।


   न वातेन बिना श्वास:, कासो न श्लेष्मा बिना।
   न रक्तेन बिना पित्त, न पित्त रहित: क्षय:।।
                                        - (हारीत संहिता)

अर्थात:- बिना वायु के स्वास रोग नहीं होता है, बिना कप के खासी नहीं होती है और बिना पित्त के क्षय (टी.बी.) नहीं होता। जब तक रोगी की छाती पर कफ आता रहेगा खांसी से आराम मिलना कठिन हो जाता है। ना जुकाम ही जाता है और ना खांसी ही पीछा छोड़ती है। वैद्य रोगी को गर्म सर्द औषधियां दिए जाते हैं, किंतु धातु की ओर ध्यान नहीं देते हैं जिससे उल्टा खांसी ही बढ़ती जाती है क्योंकि बिना जुकाम के खांसी नहीं जा सकती और जुकाम बिना धातु ठीक किए आराम नहीं हो सकता। जब तक जुकाम रहेगा छाती पर कफ जमा होता रहेगा और जब तक कफ छाती से अलग नहीं होगा खांसी कभी नहीं जाएगी खांसी के बहुत दिनों तक बने रहने से क्षय (टी.बी.) रोग हो जाता है। जिससे रोगी सूख - सूखकर  मर जाता है। याद रहे कि खांसी की जड़ कफ और श्वास की जड़ वायु है।
बहुत से अज्ञानी डॉक्टर (वैद्य) कफ व वायु का नाश करने के लिए दनादन गर्म औषधियां रोगी को दिए जाते हैं। जिससे कफ सूखकर जम जाता है। ऐसी दशा में रोगी को खास्ते समय बहुत कष्ट होता है तथा हर समय कफ छाती में घर्र-घर्र की आवाज किया करता है, ऐसा सूखा हुआ कफ बड़ी मुश्किल से निकलता है और यदि निकलता भी है तो रोगी को बहुत कष्ट होता है। ऐसी दशा में रोगी को गर्म दवाएं देना उसको जानबूझकर मारना है। जब तक कफ छाती से छूटकर मुख् मार्ग अथवा गुदा मार्ग द्वारा निकल ना जाए तब तक रोगी को गर्म दवाएं नहीं देनी चाहिए, बल्कि का कफ निकालने वाली व कफ को कम करने वाली दवाइयां देनी चाहिए।

आयुर्वेद अनुसार खांसी के प्रकार- चरक सुश्रुत और वाग्भट आदि सभी आचार्यों ने पांच प्रकार की तथा केवल हारीत मनु ने 8 प्रकार की खांसी लिखी है। जिनमे मुख्यत पांच प्रकार की ये खासिया होती है। (१)वातज, (२)पित्तज, (३)कफज, (४)क्षतज और (५)क्षयज जैसी मनुष्य को खांसी होती हैं। इन पांचों प्रकार की खांसी में पहले प्रकार से दूसरे प्रकार की खासी उत्तरोत्तर प्रबल होती है तथा क्रम से बढ़कर शरीर का क्षय करती है। ऋषि हारीत ने सन्निपातज, वात - पित्तज और कफ पित्तज यह तीन प्रकार की खांसिया अधिक लिखी हैं, किंतु इन तीनों प्रकार की खासियों के लक्षण क्षयज कास से मिलते हैं। इसी कारण अन्य आयुर्वेदिक महाऋषियों ने यह तीन प्रकार की खांसीयो को नहीं लिखा है। 

खांसी के संबंध में ग्रामीण लोगों में एक कहावत है- 
              लड़ाई की जड़ हांसी।
              मरीजों की जड़ खांसी।।

जो अक्षरत: बिल्कुल सत्य है। क्योंकि खांसी की उपेक्षा करने से शरीर की हानि ही हानि होती है, क्योंकि यह बहुत बुरा रोग है, जो अनेक रोगों को पैदा करने वाला है। अतः खांसी होते ही उचित चिकित्सा व्यवस्था करना ही बुद्धिमानी है।

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